अनिल द्विवेदी
शहडोल। देश इन दिनों एक नई समस्या से जूझ रहा है, वह है नए कृषि कानूनों को लेकर जारी किसानों का आंदोलन। आंदोलन की प्रासंगिकता और किसानों की मांगों के साथ ही उनकी हठ के औचित्य के सवाल को यदि थोड़ी देर के लिये दरकिनार कर दिया जाय तो यह सवाल उठना लाजमी है कि अपनी मांगों को मनवाने के लिये दूसरों के हितों की अनदेखी करते हुए उन्हें कैद कर देना या जन सामान्य की आवाजाही रोक देना कहां तक उचित है। सवाल यह भी उठता है कि कई ऐसे कानून हैं जो कुछ या कई लोगों को पसंद नहीं हैं जिनसे किसी वर्ग विशेष को असुविधाओं का सामना भी करना पड़ता है अथवा देश का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसे भारतीय संविधान के कुछ प्रावधानों के कारण उपेक्षा का अहसास होता है तो क्या तमाम कानूनों और संविधान को रद्द कराने के लिये देश या क्षेत्र विशेष की कानून व्यवस्था से खिलवाड़ करने की अनुमति दी जा सकती है।
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि दिल्ली के विभिन्न मार्गों पर चल रहा किसान आंदोलन भले ही किसानों के हित में किसानों द्वारा किया जा रहा है लेकिन वास्तविकता यह है कि किसान ही एक नहीं है किसानों का ही एक बड़ा वर्ग सरकार और कृषि कानूनों के समर्थन में खड़ा नजर आ रहा है तो दूसरी तरफ आंदोलनकारी किसान अपनी मांग पर अड़े हुए हैं। यह भी किसान है और वह भी किसान है एक दूसरे को किसान मानते भी लेकिन जब बात आंदोलन के औचित्य की होती है तो आंदोलनकारी किसान दूसरे वर्ग को सत्ता पोषित और दूसरा वर्ग आंदोलनकारियों को विपक्ष पोषित किस संज्ञा देने से नहीं चूकता है। कौन किसके द्वारा पोषित है या नहीं है यह महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण यह है की क्या वास्तव में केंद्र सरकार द्वारा लागू किए गए नए कृषि कानून जिन्हें सरकार स्थगित रखने पर भी तैयार होने का दावा कर रही है किसानों के हित के विरुद्ध है। किसान विशेषज्ञ और सत्ता पक्ष के लोग इसे किसानों के हित मैं साबित करने पर तुले हुए हैं तो विपक्षी दल और आंदोलनकारी किसान नए कानून को किसानों के हित के विरुद्ध साबित करने में जुटे हैं।
वास्तव में देखा जाए तो अब किसान कानून किसानों के हित से ज्यादा दोनों पक्षों के अहम का प्रश्न बनकर रह गया है। ईगो की इस लड़ाई में कोई भी पक्ष झुकने या पीछे हटने को तैयार नहीं है इगो रूपी शैतान दोनों ही पक्षों को जंग जारी रखने के लिए विवश कर रहा है सवाल यह उठता है कि जब दिमाग में शैतान बैठा है तो समस्या का समाधान आखिर कैसे निकलेगा कौन है जो संविधान और कानून के दायरे में इस समस्या का हल निकाल कर दोनों पक्षों को संतुष्ट कर पाएगा। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के विभिन्न मार्गो में बॉर्डर पर बैठे आंदोलनकारी किसान ट्रैक्टर रैली निकालने की तैयारी में जुटे हुए हैं उनका परेड निकालना गलत नहीं है लिखित जिस भावना और उद्देश्य के साथ ट्रैक्टर पर एक निकाला जा रहा है वह सही मायने में उचित नहीं कहा जा सकता है क्योंकि हर साल तो ट्रैक्टर परेड नहीं होती थी इसी साल क्यों?
आंदोलन को समाप्त कराने के लिये वार्ता के पिछले 10 दौर के विपरीत शुक्रवार को हुई 11वें दौर की बातचीत में अगली बैठक की कोई तारीख तय नहीं हो पाई और दोनों पक्षों ने अपने रुख को कड़ा कर लिया. सरकार ने किसान यूनियनों से कहा कि यदि वे कानूनों को निलंबित रखने पर सहमत हों तो शनिवार तक बता दें तथा बातचीत इसके बाद ही जारी रह सकती है। सरकार ने बुधवार को पिछले दौर की वार्ता में किसानों के दिल्ली की सीमाओं से अपने घर लौटने की स्थिति में कानूनों को एक से डेढ़ साल के लिए निलंबित रखने तथा समाधान ढूंढऩे के लिए संयुक्त समिति बनाने की पेशकश की थी. किसान नेताओं ने हालांकि कहा था कि वे नए कृषि कानूनों को वापस लिए जाने से कम किसी बात को नहीं मानेंगे।
किसान नेताओं ने शुक्रवार को हुई बैठक के बाद कहा कि भले ही बैठक पांच घंटे चली, लेकिन दोनों पक्ष मुश्किल से 30 मिनट के लिए ही आमने-सामने बैठे। बैठक की शुरुआत में ही किसान नेताओं ने सरकार को सूचित किया कि उन्होंने बुधवार को पिछले दौर की बैठक में सरकार द्वारा रखे गए प्रस्ताव को खारिज करने का निर्णय किया है।
केंद्रीय मंत्रियों ने किसान यूनियनों से कहा कि उन्हें सभी संभव विकल्प दिए गए हैं और उन्हें कानूनों को निलंबित रखने के प्रस्ताव पर आपस में आंतरिक चर्चा करनी चाहिए. कृषि मंत्री तोमर ने 11वें दौर की वार्ता विफल होने के बाद अफसोस जताया और कड़ा रुख अख्तियार करते हुए आरोप लगाया कि कुछ ताकतें हैं, जो अपने निजी एवं राजनीतिक हितों के चलते आंदोलन को जारी रखना चाहती हैं। उधर भारतीय किसान यूनियन (असली अराजनीतिक) के अध्यक्ष हरपाल सिंह का कहना है कि, ''यदि हम सरकार की पेशकश को स्वीकार कर लेते हैं, तो दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हमारे साथी भाई कानूनों को रद्द करने के अलावा कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे. वे हमें नहीं बख्शेंगे. हम उन्हें क्या उपलब्धि दिखाएंगे. हम यहां मर जाएंगे, लेकिन कानूनों को रद्द कराए बिना वापस नहीं लौटेंगे। कुल मिलाकर किसान यूनियन किसानों से और सरकार कानून वापसी की किरकिरी से डर रहे हैं ऐसे हालात में समाधान बहुत कठिन नजर आता है।


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